मंगलवार, 17 जनवरी 2017

KORBYN KOVE BEACH, PORT BLAIR कार्बाइन्सज कोव बीच, पोर्टब्लेयर



उत्तरी अंडमान के अंतिम छोर डिगलीपुर पहुँचकर आपने कालीपुर तट पर कछुओं का प्रजनन स्थल देखा इसके बाद यहाँ की सबसे ऊँची चोटी सैडल पीक की ट्रेकिंग भी आपने मेरे साथ ही की है। अब आगे के यात्रा वृतांत की ओर चलते है। यदि आप अंडमान की इस यात्रा को शुरु से पढना चाहते हो तो यहाँ माऊस से चटका लगाये और पूरे यात्रा वृतांत का आनन्द ले। इस लेख की यात्रा दिनांक 24-06-2014 को की गयी थी।
अंडमान निकोबार KORBYN KOVE BEACH, PORT BLAIR, कोरबायन कोव बीच
अंडमान की सबसे ऊँची पर्वत चोटी सैडल पील की सफल ट्रैकिंग के उपरांत हमारा वहाँ कुछ और देखने का मन नहीं था। ऐसा नहीं है इसके अलावा वहाँ और कुछ नहीं था। डिगलीपुर में अभी भी बहुत स्थल देखने बाकि थे जिसे रोमियो-जूलियट टापू व मड वेलकिनो (MUD VERKENO) तो हमें भी देखने थे लेकिन बारिश के मौसम में वहाँ जाने के लिये वाहन नहीं मिल पाया। हम पोर्टब्लेयर वापिस आने के लिये सुबह सवेरे ही होटल छोड निकल पडे। कालीपुर वाले होटल से डिगलीपुर आने  के लिये जो स्थानीय/ लोकल बस चलती है वह भी समय की बडी पाबन्द है। हम 25 किमी दूर से आये है। पोर्टब्लेयर वाली बस के चलने से आधा घंटा पहले डिगलीपुर पहुँच गये थे। सुबह का समय थोडा नाश्ता पानी करना भी आवश्यक था। हमारी बस दिन भर में 325 किमी की यात्रा करेगी। दोपहर में कम से कम एक दो बार कही न कही भोजन के लिये भी रुकेगी। हम होटल से भी बिना खाये पीये ही चले थे। जहाँ हमारी बस खडी थी उसके ठीक सामने कई ढाबे व होटल थे। हल्का-फुल्का नाश्ता कर वापिस अपनी सीट पर विराजमान हो गये।

सभी सवारियों को सीट संख्या आवंटित थी इसलिये सीट पर मनमर्जी व जोर जबरदस्ती वाली स्थिति नहीं थी। डिगलीपुर से थोडा आगे चलते ही बारिश शुरु हो गयी थी। बारिश के मौसम में बाहर की खुली हवा का आनन्द लिया जा सकता था लेकिन हमारी बस वातानुकूलित होने से इसकी शीशे वाली खिडकी नहीं खुल सकती थी। बारिश जारी रहने के कारण बस चालक बस को ज्यादा तेज नहीं चला रहा था। सडक के दोनों और जंगल व पहाड पीछे छूटते जा रहे थे। यह हाईवे नम्बर 4 चौडाई में बहुत ज्यादा नहीं है एक बार में दो बस भी इस पर नहीं चल सकती थी। सामने से आती बस, ट्रक या कार को बचाने के लिये भी बस का एक पहिया सडक से नीचे उतारना पडता था।

डिगलीपुर से रंगत पहुँचने तक, बारिश थोडी देर के लिये भी बन्द ना हुई। एक सीट के ऊपर छत टपकने लगी तो उस सवारी को वहाँ से हटाकर केबिन में एडजस्ट करा दिया गया। रंगत व मायाबन्दर जैसे शहरों में हमारी बस नहीं रुकी। हमारी बस की अधिकतर सवारियाँ पोर्टब्लेयर की ही थी। बीच में दो-तीन सवारी रंगत उतरी थी। जिसको बाद में भरने कोई नहीं आया। पता लगा कि इस बस में बीच में उतरो या आखिर में, टिकट आखिर तक का ही बनेगा। डिगलीपुर से चलते समय हमारी बस में 10-12 सीट खाली थी जो आगे वाले 20-22 किमी तक जाकर फुल हो पायी। रंगत से आगे जाने पर एक जगह जाकर बस चालक ने हमारी बस रोक दी। कंडक्टर ने बताया कि दोपहर का एक बजने वाला है। यहाँ हमारी बस आधा घंटा रुकेगी। जिसको भोजन करना है वो भोजन कर ले। इसके बाद यह बस बीच में कही भी भोजन व चाय-पानी के लिये नहीं रुकेगी। राजेश जी व मनु भाई दोनों ने भोजन किया। मुझे चावल व रोटी खाने का मन नहीं था। मेरा बिस्कुट खाने का मन था। इसलिये मैं अपने लिये बिस्कुट का एक पैकेट ले आया। भोजन कराने के उपरांत चालक ने बस को पोर्टब्लेयर के लिये दौडा दिया। 

वापसी में भी हमारी बस ने दो बार समुन्द्री जहाज में सवार होकर आगे की यात्रा जारी रखी। जाते समय मुझे जारवा जनजाति के नंग-धंडग लोग दिखाई नहीं दिये थे। वापसी में सडक किनारे 4-5 जारवा सडक किनारे बैठे हुए दिख गये थे। जारवा लोगों का फोटो खीचना सख्त मना है। इसलिये बस में किसी ने भी फोटो लेने की गलती नहीं की। पोर्ट बलेयर शहर यहाँ का सबसे बडा शहर है करीब 10-12 किमी पहले से आबादी वाला इलाका दिखायी देने लगता है। बीच में वंडूर बीच के लिये जाती सडक दिखायी दी। हम वंडूर बीच देखने के लिये इस यात्रा के आखिरी दिन यहाँ आये थे। यदि आज दिन का दो-तीन घंटे का समय बचा होता तो वंडूर बीच आज ही देख लेते। अभी तो अंधेरा छाने लगा है। अंधेरा होते-होते पोर्टब्लेयर पहुँच गये।

हमारी यह बस प्राइवेट थी। निजी बसों का अडडा भी अलग ही है। सरकारी बस अडडा इसके नजदीक ही है। हम पैदल ही सरकारी बस अड्डॆ की ओर चल दिये। बस अडडे के पास बहुत सारे बजट होटल भी है। जिनमें कम कीमत से लेकर ज्यादा कीमत वाले कमरे उपलब्ध है। हमें पैदल चलते देख कई आटो वाले हमें छोडने को तैयार दिखायी दिये। एक आटो में बैठकर हम अपने होटल पहुँच गये। आज हम पहले दिन वाले निजी होटल में नहीं ठहरे थे। आज एक सरकारी होटल में ठहरे थे। होटल का नाम याद नहीं रहा। रात हो चुकी थी। बाहर अंधेरे में कुछ घूमने लायक नहीं था। इसलिये अपने होटल में ही खाना खाया गया। खाना खाने के बाद अपने ऐसी कमरे में जाकर सो गये। 

मै कभी भी अकेला होता हूँ तो एसी कमरे तो बहुत दूर की बात, कमरा लेने से ही बचता हूँ। मेरा इरादा तो कम से कम खर्च में अधिक से अधिक यात्रा करना होता है। लेकिन यदा-कदा जो साथी साथ होते है उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए वातानुकूलित कमरे में ठहरने में कोई ऐतराज नहीं है। इस तरह एसी कमरे का लुत्फ भी साथियों के जरिये उठा लिया जाता है। यहाँ होटल के बाथरुम में अपने गंदे कपडे भी धो दिये गये। गीले कपडे आदि सुखाने के लिये बाहर डाल दिये गये। कुछ बडे होटलों में कपडे धोकर सुखाने की मनाही होती है। कपडे धोने का तो होटल वालों को पता नहीं लग सकता कि बाथरुम में कौन क्या घपला कर रहा है? लेकिन कपडे सुखाने के लिये जब बाहर डाले जाते है तो पता लग जाता है। हमें यहाँ किसी ने नहीं टोका कि कपडे क्यों सूखा रहे हो।

आज सुबह उठते ही, सबसे पहले समुन्द्र किनारे कुछ अन्य स्थल देखने की योजना पहले ही बनायी जा चुकी थी। दिन निकलते ही तैयार होकर घूमने चल दिये। सामान पैक कर होटल के स्वागत कक्ष में रखवा दिया था। ताकि दोपहर बाद आये तो रुम के डबल चार्ज के चक्कर में ना पडना पडे। होटल से बाहर निकलते ही एक आटो वाले को रुकते ही बोला कि KORBYN KOVE BEACH चलोगे। वह तुरन्त तैयार हो गया। हम तीनों आटो से कोरबाइन कोव बीच पहुँचे। यह बीच बहुत ज्यादा बडा नहीं है। लेकिन बहुत सुन्दर है। सुरक्षा के हिसाब से यह बीच बहुत महत्वपूर्ण रहता होगा क्योंकि यहाँ पर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लडाई में जापानी सेना ने 23 मार्च 1942 को कब्जा कर लिया था। उस समय जापानियों ने अपनी सुरक्षा व हमलावरों से बचाव के लिये जबरदस्त सीमेंटिड बंकर बनाये थे। जो आज भी उतनी ही मजबूती से खडे हुए है।

हम कुछ देर तक बीच का आनन्द उठाते रहे। यहाँ बीच किनारे एक रिजोर्ट है जिसने पर्यटकों के लिये लकडी की बनी हुई ढेर सारी कुर्सियाँ लाइन से रखी हुई है। बीच पर दो वाच टावर भी दिखाई दिये। इसी बीच पर एक स्थानीय वयक्ति किसी पुजारी के साथ मृत्यु उपरांत होने वाले जैसे किसी कर्मकाण्ड में वयस्त था। जिस प्रकार मैदानों व पहाडों में लोग कर्म काण्ड करने के लिये नदी किनारे आते है ठीक उसी प्रकार यहाँ कर्मकान्ड करने के लिये समुन्द्र से बेहतर विकल्प कोई दूसरा नहीं हो सकता है। समुन्द्र किनारे रहने वालों के लिये समुन्द्र उतना ही पवित्र है जितना हमारे लिये कोई नदी होती है। सभी धर्म में मृत्यु उपरांत होने वाले कार्य अलग अलग प्रकार के होते है। कोई तेरहवी करता है तो कोई चौथा करता है तो कोई उसी दिन सब हिसाब-किताब बराबर कर देता है। जीते जी तो हाय-हाय होती ही है मरने के बाद भी कुछ दिन हाय-हाय करनी ही पडती है फिर कौन किसको याद करता है?

अब तक हम जहाँ भी गये। वहाँ पर जाते ही नारियल पानी व उसके अन्दर की कच्ची गिरी को खाते-पीते गये। यहाँ भी एक नारियल पानी वाला दिखाई दिया। उसे देखने के बाद हम तीनों में से कोई भी रुकने वाला नहीं था। मनु व राजेश जी के नारियल की गिरी भी ज्यादातर मैं ही खा जाता था। हम तीनों ने नारियल पानी पिया और नारियल की कच्ची गिरी निकलवा कर खाते हुए वापस आटो की ओर चल दिये। आटो वाला हमारी प्रतीक्षा में ही था। जैसे ही हम आटो में बैठे, वो हमें लेकर अगली मंजिल की ओर चल दिया। अगली मंजिल कौन सी होगी? मुझे भी नहीं पता था। जब हमारा आटो वहाँ जाकर रुकेगा तो पता लगेगा कि हम कहाँ आ गये है? आटो चलता रहा। दिमाग में आने वाली नई जगह की तिकडमें भी चलती रही। आखिरकार हरी भरी उतराई-चढाई वाली जगहों से होता हुआ हमारा आटो गाँधी पार्क के सामने पहुँचा तो हमने आटो वाले को कहा कि हमें यही उतार दो। यदि तुम्हारे पास ज्यादा समय हो तो हमें लेते जाना। यदि कोई और सवारी मिले तो उसे लेकर निकल जाना। आटो वाले का यहाँ तक का हिसाब कर दिया गया। तो चलो दोस्तों गाँधी पार्क देखकर आते है। (क्रमश:) (Continue)


डिगलीपुर से पोर्टब्लेयर के बीच भोजन के लिये रुकी बस

अंग्रेजों की कब्र




जापानी सेना के बनाये बंकर

वाच टावर

कर्म काण्ड आत्मा की शांति हेतू

रिजोर्ट वालों की कुर्सियाँ





जापानी गये तो हिन्दुस्तानी ने कब्जा कर लिया बंकर पर

गाय बीच भ्रमण पर

मनमौजी बंकर पर

एक जोडा नारियल की छांव में

यह जड बता रही है कि इसने बहुत से नारियल पैदा किये होंगे


कितने खाओगे, दोस्तों, कम तो नहीं पडेंगे ना

नारियल गिरी के साथ कैमरा सैल्फी

यहाँ का काम तमाम, अब अगली मंजिल की तलाश में







2 टिप्‍पणियां:

लोकेन्द्र सिंह परिहार ने कहा…

यात्रा बहुत ही बढ़िया फोटो कैप्शन भी सुन्दर

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

पानी वाला नारियल हमारे बॉम्बे में बहुत मिलता है और गिरी भी टेस्टी

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